Thursday, December 9, 2010

चंदवरदाई के वंशज सोनकवि

कोसी अंचल के साहित्यिक विरासत की कडि़यॉ 'पृथ्‍वीराज रासो' के यश:कायी कवि चंदवरदाई से भी जुड़ती हैं। कवि चंद के पुत्र जल्‍ह राजौरगढ़ किले में रहते थे। उन्‍हीं के वंश में सोनकवि हुए थे, जो सोलहवीं शती में राजस्‍थान से बिहार चले आए थे और मिथिला नरेशों के राज्‍याश्रित कवि थे। वर्तमान सुपौल जिले के परसरमा ग्राम में निवास करते हुए हुए चंद कवि के वंशज कवि मिथिला राज के राज्‍याश्रय में बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध तक पंद्रह पीढि़यों तक काव्‍य रचना करते रहे और साहित्‍य भंडार को समृद्ध करते रहे। सोनकवि सोलहवीं शती में हुए, जिनकी कविताएँ 'मिथिला-राज्यप्राप्ति-कवितावली' (पं. जगदीश कवि, 1921 ई.) में संगृहीत हैं। वे क्रमशः मिथिला के महेश ठाकुर, गोपाल ठाकुर, अच्युत ठाकुर आदि नरेशों के दरबार में थे, जिन पर लिखी उनकी कुछ कविताएँ मिलती हैं।

(1)
मारग कानन अनुपम शोभा। जहँ गुँजरत मधुपमन लोभा।।1।।
कहुँ गुलाब वेली बन नाना। चंपा बाग चमेली दाना।।2।।
कहुँ तड़ाग जल कुमुद सोहावन। कहुँ कमलधन मंजुल पावन।।।।
आम अशोक आदि बट नाना। मंद वायुगति देव लुभाना।।4।।
कोकिल पिक कलरव चहुँ ओरा। दल केहरि बारन मृग मोरा।।5।।
लता लबंग वृक्ष लपटाने। कनक शरीर नेह घनसाने।।6।।
घटा सघन रविमंडल छाये। नीलमगिरि मणिशिखर बनाये।।7।।
(2)
तेरोई सुयस के समान ससिसान स्वच्छ,
तमकि रही है तेजताई तन आपसे।
कविवर सोन चंदचमक अनंद हौज
तेरो मुख बिम्ब प्रतिभासैजूथजाप से।।
अंक भरिलंक लौनिसंक लटकारे बंक,
तैसो निकलंक फणि बैठे चुपचाप से।।
काली तूँ चरण से सरोज प्रतिरोज भासै
ध्याबे ध्यान आकर प्रभाकर प्रताप से।।1।।

Wednesday, October 6, 2010

कोसी अंचल का प्रथम मैथिली कवि : विनयश्री

बौद्धधर्म प्रचारक विनयश्री (बारहवीं शती) का निवास-स्थान पूर्वी मिथिला बताया गया है। यह निर्विवाद रूप से कोसी अंचल ही है। उनका संबंध विक्रमशिला, नालंदा और जगतल्ला के बौद्ध बिहारों से था। मुस्लिमों द्वारा इन विहारों के नष्ट हो जाने के पश्चात् वे अपने गुरु शाक्य-श्रीभद्र और अन्य व्यक्तियों के साथ 1203 ई. में तिब्बत पहुँचे। उस समय उनकी अवस्था 35 वर्षों से कम नहीं थी। उन्होंने शाक्य-श्रीभद्र को अनेक भारतीय ग्रंथों के भोट-भाषा में अनुवाद करने में सहायता की। जगतल्ला-विहार के पंडितों-विभूतिचंद्र, दानशील, सुगतश्री, संघश्री (नैपाली) आदि साथियों के साथ उनके तिब्बत के ‘स. स्क्य-विहार’ में भी रहने का उल्लेख मिलता है। वहीं राहुल सांकृत्यायन को 12-13वीं सदी में लिखित कुछ पृष्ठ मिले, जिनमें विनयश्री के 15 गीत हैं। वे मैथिली भाषा में रचना किया करते थे।

(1)
निमूल तरुवर डाल न पाती।
निभर फुल्लिल्ल पेखु बिआती।।ध्रु.।।1।।
भणइ विनयश्री नोखौ तरुअर। फुल्लए करुणा फलइ अणुत्तर।
करुणामोदें सएलवि तोसए। फल संपतिएँ से भव नाशए।।2।।
से चिन्तामणि जे जइ स बासए। से फल मेलए नहि ए साँसए।
वर गुरुभत्तिएँ चित्त पबोही। तहि फल लेहु अणुत्तरबोही।।3।।
गेल्लिअहुँ गिरिसिहर रिजात्तें। तहिं झंपाविल्लि कलिके अन्ते।।ध्रु.।।
हल कि करमि सहिएँ एकेल्लि। बिसरे राउ लेल्लइ लिसु पेल्ली।
तहिं झंपइ ट्ठेल्लि हेरुअ मेले। बिसअ बिसइल्लि मा छाडिय हेले।
भणइ विनयश्री वरगुरु बएणे। नाह न मेल्लप रे गमणे।।4।।
(2)
राहुएं चांदा गरसिअ जाबें। गरुअ संबेअण हल सहि ताबें।।ध्रु.।।
भणइ विनयश्री नोख बिनाणा। रवि साँजोएँ बान्ह गहणा।
बांद गरसिल्ले आन्न न दिशइ। सपुल बिएक रूअ पडिहारइ।।
साब् गरासिउ आध राती, न तहि इन्दी बिसअ विआती।
कइसो आपु व गहराणा भइल्ला। सम गरासें अथवण गइल्ला।।ध्रु.।।

Monday, September 20, 2010

सरहपा का काव्‍य


सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) को हिन्‍दी का प्रथम कवि माना जाता है। विभिन्‍न साक्ष्‍यों के आधार पर कोसी अंचल के कवि-आलोचक और अध्‍येता तथा 'कविता कोसी' पुस्‍तक शृंखला के संपादक देवेन्‍द्र कुमार देवेश ने 'कविता कोसी' के प्रथम खंड (2007 ई.) में सरहपा को कोसी अंचल का कवि घोषित किया है। उनके रचना संसार से एक चयन यहॉं प्रस्‍तुत किया जा रहा है :

पाखंड खंडन
ब्राह्मण न जानते भेद। यों ही पढ़े ये चारो वेद।
मट्टी पानी कुश लेइ पढ़ंत। घरही बइठी अग्नि होमंत।
काज बिना ही हुतवह होमें। आँख जलावें कड़घए धूएँ।
एकदंडी त्रिदंडी भगवा भेसे। ज्ञानी होके हंस उपदेशे।
मिथ्येहि जग बहा भूलैं। धर्म अधर्म न जाना तुल्यैं।
शैव साधु लपेटे राखी। ढोते जटा भार ये माथी।
घर में बैठे दीवा बालैं। कोने बैठे घंटा चालैं।
आँख लगाये आसन बाँधे। कानहिं खुसखुसाय जन मूढ़े।
रंडी मुंडी अन्यहु भेसे। दीख पड़त दक्षिना उदेसे।
दीर्घनखी यति मलिने भेसे। नंगे होइ उपाड़े केशे।
क्षपणक ज्ञान विडंबित भेसे। आतम बाहर मोक्ष उदेसे।

सहज मार्ग
ध्यान-रहित क्या कीजै ध्यानै। जो अ-वाच्य ताहि क्यों बक्खानै।
भव-समुद्रे सकल जग बहेउ। निज स्वभाव न केहूहि गहेउ।
मंत्र न तंत्र न ध्येय न धारण। सर्ब इ रे मूर्ख विभ्रम-कारण।
अ-समल चित्त न ध्याने खरडहु। सुख रहते ना अपने झगड़हु।
नाद न बिन्दु न रवि न शशिमंडल। चित्तराज स्वभावे मुक्त।
ऋजु रे ऋजु छाडि ना लेहु रे वंक। नियरे बोधि न जाहु रे लंक।
हाथे रे कंकण ना लेहु दर्पण। अपने आप बूझहु निज मन।
पार-वार सोई गाजै। दुर्जन-संगे डूबे जाये।
बायें दाहिने जो खाल-बेखाला। सरह भनै बप्पा ऋजु बाट भइला।

गुरु महिमा
गुरु के वचन अमियरस, धाइ न पीयेउ जेहि।
बहु-शास्त्रार्थ-मरुस्थले, तृषितै मरिबो तेहि।
चित्त अचित्तहु परिहरहु, तिमि रहहू जिमि बाल।
गुरुवचने दृढ़ भक्ति करु, होइ है सहज उलास।

भोग में निर्वाण
खाते पीते सुरत रमंते। आलिकुल बहुलहु चक्र फिरंते।
एवं सिद्धि जाइ परलोकहिं। माथे पाद देइ भवलोकहिं।
जहँ मन पवन न संचरै, रवि शशि नाहिं प्रवेश।
तहँ मूढ़! चित्त विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेश।
आदि न अंत न मध्य तहँ, ना भव ना निर्वाण।
एहु सो परम महासुख, ना पर ना अप्पान।

काया तीर्थ
एहिं सों सरस्वती प्रयाग, एहिं सो गंगासागर।
वाराणसी, प्रयाग, एहिं सो चंद्र-दिवाकर।
क्षेत्र पीठ उपपीठ एहिं, मैं भ्रमेऊँ समिस्थउ।
देह सदृश तीर्थ, मैं सुनेउँ न देदेउँ।
सर पुरइणि दल कमल, गंध केसर वर नालें।
छाड़हु द्वैत न करहु से, ना लागह मढ़ आले।
कामंत शांत क्षय जाय, अत्र पूजहु कुल हीनहु।
ब्रह्मा-विष्णु त्रिलोचन, जहँ जाय विलीनहु।
यदि नहिं विषयहि लीलियइ, तो बद्धत्व न केहि।
सेतुरहित नव अंकुरहि, तरुसंपत्ति न जेहि।
जहँ तहँ जैसेउ तैसेउ, येन तेन भा बुद्ध।
स्वसंकल्पे नाशिअउ, जगत् स्वभावहि शुद्ध।
सहज कल्प परे द्वैत ठिउ, सहज लेहु रे शुद्ध।
काय पग पाणि पीस लेउ, राजहंस जिमि दुष्ट।