Monday, September 20, 2010

सरहपा का काव्‍य


सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) को हिन्‍दी का प्रथम कवि माना जाता है। विभिन्‍न साक्ष्‍यों के आधार पर कोसी अंचल के कवि-आलोचक और अध्‍येता तथा 'कविता कोसी' पुस्‍तक शृंखला के संपादक देवेन्‍द्र कुमार देवेश ने 'कविता कोसी' के प्रथम खंड (2007 ई.) में सरहपा को कोसी अंचल का कवि घोषित किया है। उनके रचना संसार से एक चयन यहॉं प्रस्‍तुत किया जा रहा है :

पाखंड खंडन
ब्राह्मण न जानते भेद। यों ही पढ़े ये चारो वेद।
मट्टी पानी कुश लेइ पढ़ंत। घरही बइठी अग्नि होमंत।
काज बिना ही हुतवह होमें। आँख जलावें कड़घए धूएँ।
एकदंडी त्रिदंडी भगवा भेसे। ज्ञानी होके हंस उपदेशे।
मिथ्येहि जग बहा भूलैं। धर्म अधर्म न जाना तुल्यैं।
शैव साधु लपेटे राखी। ढोते जटा भार ये माथी।
घर में बैठे दीवा बालैं। कोने बैठे घंटा चालैं।
आँख लगाये आसन बाँधे। कानहिं खुसखुसाय जन मूढ़े।
रंडी मुंडी अन्यहु भेसे। दीख पड़त दक्षिना उदेसे।
दीर्घनखी यति मलिने भेसे। नंगे होइ उपाड़े केशे।
क्षपणक ज्ञान विडंबित भेसे। आतम बाहर मोक्ष उदेसे।

सहज मार्ग
ध्यान-रहित क्या कीजै ध्यानै। जो अ-वाच्य ताहि क्यों बक्खानै।
भव-समुद्रे सकल जग बहेउ। निज स्वभाव न केहूहि गहेउ।
मंत्र न तंत्र न ध्येय न धारण। सर्ब इ रे मूर्ख विभ्रम-कारण।
अ-समल चित्त न ध्याने खरडहु। सुख रहते ना अपने झगड़हु।
नाद न बिन्दु न रवि न शशिमंडल। चित्तराज स्वभावे मुक्त।
ऋजु रे ऋजु छाडि ना लेहु रे वंक। नियरे बोधि न जाहु रे लंक।
हाथे रे कंकण ना लेहु दर्पण। अपने आप बूझहु निज मन।
पार-वार सोई गाजै। दुर्जन-संगे डूबे जाये।
बायें दाहिने जो खाल-बेखाला। सरह भनै बप्पा ऋजु बाट भइला।

गुरु महिमा
गुरु के वचन अमियरस, धाइ न पीयेउ जेहि।
बहु-शास्त्रार्थ-मरुस्थले, तृषितै मरिबो तेहि।
चित्त अचित्तहु परिहरहु, तिमि रहहू जिमि बाल।
गुरुवचने दृढ़ भक्ति करु, होइ है सहज उलास।

भोग में निर्वाण
खाते पीते सुरत रमंते। आलिकुल बहुलहु चक्र फिरंते।
एवं सिद्धि जाइ परलोकहिं। माथे पाद देइ भवलोकहिं।
जहँ मन पवन न संचरै, रवि शशि नाहिं प्रवेश।
तहँ मूढ़! चित्त विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेश।
आदि न अंत न मध्य तहँ, ना भव ना निर्वाण।
एहु सो परम महासुख, ना पर ना अप्पान।

काया तीर्थ
एहिं सों सरस्वती प्रयाग, एहिं सो गंगासागर।
वाराणसी, प्रयाग, एहिं सो चंद्र-दिवाकर।
क्षेत्र पीठ उपपीठ एहिं, मैं भ्रमेऊँ समिस्थउ।
देह सदृश तीर्थ, मैं सुनेउँ न देदेउँ।
सर पुरइणि दल कमल, गंध केसर वर नालें।
छाड़हु द्वैत न करहु से, ना लागह मढ़ आले।
कामंत शांत क्षय जाय, अत्र पूजहु कुल हीनहु।
ब्रह्मा-विष्णु त्रिलोचन, जहँ जाय विलीनहु।
यदि नहिं विषयहि लीलियइ, तो बद्धत्व न केहि।
सेतुरहित नव अंकुरहि, तरुसंपत्ति न जेहि।
जहँ तहँ जैसेउ तैसेउ, येन तेन भा बुद्ध।
स्वसंकल्पे नाशिअउ, जगत् स्वभावहि शुद्ध।
सहज कल्प परे द्वैत ठिउ, सहज लेहु रे शुद्ध।
काय पग पाणि पीस लेउ, राजहंस जिमि दुष्ट।

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